कृष्ण ने अर्जुन से कहा ।।
श्रुति वि प्रतिपन्न से हटकर तुमको निश्चयात्मिका बुद्धि की ओर चलना चाहिए अत: तुम वेदवाद से हटकर अमृतज्ञान का आश्रय लो
सीताजी ने बाल्मीकि रामायण के अनुसार राम से कहा था
न कथयन्चन सा कार्या गृहीत धनुषा त्वया ।
बुद्धिर्वैरम् विना हन्तुम् राक्ष्सानडण्डकाश्रतान ।।
अत: धर्मसंस्थापन के लिए राम आपको
परित्रणाय साधूनाम् पर ही चलना चाहिए ।।
इस प्रकार तुम भी कह रहे हो कि
कथं भीष्महम् संख्ये द्रोणम् च मधुसूदन ।
इषुभि: प्रतियोत्साम पूजार्हावरिसूदन ।।
आततायी किन्तु पूजनीयों को हम क्यों मारें और वेदों में इसका विरोध कुल नष्ट होने में पितरों के सम्बन्ध में किया गया है ।
तो वेदों मे पितरमार्ग एवं देवमार्ग जाने के रास्तों का ही मुख्यत: उल्लेख है एवं मनुष्य योनि में देवों एवं पितरों का आह्वान/ होम अपनी सुखसुविधा , धन प्राप्ति एवं शत्रुदमन के लिए ही है भले ही वह शत्रु तुम्हारे अपने स्वजन हों।।
तस्माद वै विद्वान पुरुषमिदम् ब्रह्मेति मन्यते ।
सर्वा हि्यस्मिन्न् देवता गावो गोष्ठ इवासते ।।
इस प्रकार देवयज्ञ मनुष्य शरीर में स्थित इन्द्रियों के नियन्त्रण मे ही है न कि कर्मकाण्ड में ।।
सारांश के तौर पर तुम ऊपर दोनों प्रकार से कर्म बन्धन में पड़कर या तो पृथ्वी का राज्य भोगोगे या स्वर्ग का ।
यह वेदों का सार तत्व नही है बल्कि उस परमात्मा का ध्यान करते हुए श्रद्धा युक्त हो ।।
वेदाहम् पुरुषम् महान्तम् आदित्यवर्णम् तमस: परस्तात् , तमेव विदित्वात् मृत्युमेति ।।
के अनुसार कर्म पालन ही निश्चयात्मक बुद्धि उपयोग है।
अत: इस अनुसार कर्मफल आश्रयको छोड़कर अमृतऽश्नुम अथवा अमृतात का मार्ग पाने के लिए
विनाशाय च दुष्कृताम् के मार्ग का अनुसरण करो ।।
क्योंकि
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरम् ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ।।
यही कार्याकार्य की वेदास्त्र स्थिति है ।।