Friday, March 19, 2021

वेदास्त्र योगी

 

स्टेज में अथवा कहीं भी उछल-कूद करने वाला तो बन्दर होता है फिर

यो वै तां विद्यान्नामथा स मन्येत पुराणवित ।


जहां जैसा था उसको वैसा जानने वाला और मनगढ़ंत काल्पनिक नही है जो , क्योंकि


शरीरं ब्रह्म प्राविशच्छरीरे ऽधि प्रजापति: ।। 

परमात्मा ही शरीरी है यह जानकर मुक्तात्मा रूप

के अनुसार

 इंद्रियाणि इंद्रियाणेभ्य: 

अर्थात इंद्रियों का काम इंद्रियों के लिए है इसमे ही वर्तता है वह ब्रह्मचारी ही योगी है ।।


ब्रह्मचारीष्णंचरति रोदसी उभे तस्मिन देवा: संमनसो भवन्ति ।

स दाधार पृथ्वींदिवम् च स आचार्य१ तपसा पिपर्ति ।।


वह ब्रह्मचारी जिसमें समस्त देव समाहित हो जाते हैं

वही आत्मतत्व मे रमने वाला योगी है


उसके उपरांत ही वह कर्मयोगी ज्ञानयोगी बुद्धियोगी

भक्तियोगी आदि श्रेणियों मे गोचर होता है ।।

Tuesday, March 16, 2021

वेदास्त्र दर्शन

 

आती जाती आत्माओं का सत्य कहता है कि मृत्योमुक्षीय अथवा वेदाज्ञानुसार दैवीय गुणों वाले पूर्व मे गए पितर हमारा कल्याण करें किन्तु हम मुक्त हो जांय ताकि


यदा ते विष्णुरोजसा तरीणि पदा विचक्रमे | 

आदित ते हर्यता हरी ववक्षतु:  ।।

अर्थात अवतारी विष्णु जैसे हमें भी इन्द्र का छोटा भाई न बनना पड़े ।।

इसलिए गीता कहती है कि बुद्धि से ईमानदार व्यवसायी बनो तथा आत्मसुख के लिए लोकसंग्र्ह यानी वैज्ञानिक अथवा प्राकृतिक यानी दैवी यज्ञीय कार्यों को ही सम्पादित करना चाहिए ।।

चूँकि कोई भी प्राणी अकर्ता नही रह सकता तथा सारे कार्य प्राकृतिक गुणों द्वारा ही होते हैं इसलिए शुद्ध बुद्धि द्वारा आत्मा को श्रद्धायुक्त होकर परमात्मा मे लगाकर नियत कार्य करना वेदास्त्रिक दर्शन है ।। 

इस कर्म को मोहमुक्त होकर शात्रानुसार आचरण ही धर्म है ।।

गीता सांख्य अथवा तर्क को सुलझाकर ज्ञानविज्ञान में आचरित कर्म सम्पादन को वेदाज्ञानुसार निर्देशित करती है तथा छोटे जलाशय यानी सिर्फ आत्मतत्व को ही ग्रहण करने का आदेश करती है जोकि वास्तविक रूप में अन्तिम लक्ष्य या परिपूर्ण सागर है ।।

Wednesday, March 3, 2021

वेदास्त्र

 कृष्ण ने अर्जुन से कहा ।।

श्रुति वि प्रतिपन्न से हटकर तुमको निश्चयात्मिका बुद्धि की ओर चलना चाहिए अततुम वेदवाद से हटकर अमृतज्ञान का आश्रय लो 


सीताजी ने बाल्मीकि रामायण के अनुसार राम से कहा था

 कथयन्चन सा कार्या गृहीत धनुषा त्वया 

बुद्धिर्वैरम् विना हन्तुम् राक्ष्सानडण्डकाश्रतान ।। 

अतधर्मसंस्थापन के लिए राम आपको 

परित्रणाय साधूनाम् पर ही चलना चाहिए ।।


इस प्रकार तुम भी कह रहे हो कि

कथं भीष्महम् संख्ये द्रोणम्  मधुसूदन 

इषुभिप्रतियोत्साम पूजार्हावरिसूदन ।।

आततायी किन्तु पूजनीयों को हम क्यों मारें और वेदों में इसका विरोध कुल नष्ट होने में पितरों के सम्बन्ध में किया गया है 


तो वेदों मे पितरमार्ग एवं देवमार्ग जाने के रास्तों का ही मुख्यतउल्लेख है एवं मनुष्य योनि में देवों एवं पितरों का आह्वानहोम  अपनी सुखसुविधा , धन प्राप्ति एवं शत्रुदमन के लिए ही है भले ही वह शत्रु तुम्हारे अपने स्वजन  हों।।

तस्माद वै विद्वान पुरुषमिदम् ब्रह्मेति मन्यते 

सर्वा हि्यस्मिन्न् देवता गावो गोष्ठ इवासते ।।

इस प्रकार देवयज्ञ मनुष्य शरीर में स्थित इन्द्रियों के नियन्त्रण मे ही है  कि कर्मकाण्ड में ।।



सारांश के तौर पर तुम ऊपर दोनों प्रकार से कर्म बन्धन में पड़कर या तो पृथ्वी का राज्य भोगोगे या स्वर्ग का 


यह वेदों का सार तत्व नही है बल्कि उस परमात्मा का ध्यान करते हुए श्रद्धा युक्त हो ।।

वेदाहम् पुरुषम् महान्तम् आदित्यवर्णम् तमसपरस्तात् , तमेव विदित्वात् मृत्युमेति  ।।

के अनुसार कर्म पालन ही निश्चयात्मक बुद्धि  उपयोग है।

अतइस अनुसार कर्मफल आश्रयको छोड़कर अमृतऽश्नुम अथवा अमृतात का मार्ग पाने के लिए 

विनाशाय  दुष्कृताम् के मार्ग का अनुसरण करो ।।

क्योंकि

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरम् ज्ञानचक्षुषा 

भूतप्रकृतिमोक्षं  ये विदुर्यान्ति ते परम् ।।


यही कार्याकार्य की वेदास्त्र स्थिति है ।।