बृत्रासुर बध के बाद इन्द्र के पीछे ब्रह्महत्या लग गई और वह दौड़ा दौड़ा ब्रह्मा के पास गया ।
हे पिता आपने जो अधिकार मुझको दिया उसके बाद यह क्या हो रहा है , इन्द्र ने हाथ जोड़कर निवेदन किया ।
रिषि दधीच की हड्डियों से बने बज्र का दुरुपयोग तुमने दढ्यंग रिषि के सिर काटने मे भी तो किया है , ब्रह्मा ने फटकारा ।।
हे पिता मैंने रिषि द्वारा अश्विनीकुमारों को मधुविद्या सिखाने के दण्डस्वरूप उनका सिर काटा और सरोवर से उठाकर बज्र ही तो बनाया है , इन्द्र ने निवेदन किया ।।
फिर देवराज होकर भी मुझे किसी देवता की उपासना करना चाहिए क्या ?
कस्मै देवाय हविषा विधेम् ?
अवश्य , ब्रह्मा ने कहा ।।
जिस परमात्मा से सम्पूर्ण जगत् ब्याप्त है उसका ज्ञान तो तुम्हें कृष्ण ही दे सकते हैं ।
यह आत्मविद्या मधुसूदन से बज्र-अस्त्र नही वेद- अस्त्र से प्राप्त करो ।।
किन्तु कृष्ण का तो मैंने सत्कार नही किया है वह भला मुझे क्योंकर मधुविद्या का ज्ञान देंगे , इन्द्र मन ही मन शरमाया ।।
अव दृप्सो अंशुमतीमतिष्ठदियान: कृष्णो दशभि: सहस्त्रै: ।
आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमपस्नेहतीर्नृमणा अधत्त ।।
फिर भी वह कृष्ण के पास पहुँचा ।
कृष्ण ने कहा कि भगवान विष्णु का त्रेता मे रामावतार अथवा द्वापर मे कृष्णावतार होने पर ही आत्मविद्या का ज्ञान तुम्हें मिलेगा ।
अपने अभिमान के कारण इन्द्र , राम से यह ज्ञान न ले सका ।।
इहौपत्यायसौ रामो यावन्मां नाभिभाषते ।
निष्ठां नयतु तावत्तु ततो मां दृष्तुमर्हति।।
फिर यह ज्ञान राम ने लक्ष्मण को दिया ।
ईश्वर जीव भेद प्रभु सकल कहो समुझाय ।
जासे होय चरन रति सोक मोह भ्रम जाय ।।
इसके उपरांत द्वापर में कृष्ण ने इन्द्र का अभिमान बचपन मे तोड़ा, और आत्मज्ञान का उपदेश गीता ज्ञान के रूप मे फिर इन्द्र को अर्जुन के माध्यम से दिया ।।
उपदृष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर: ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन पुरुष: पर: ।।
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