राजा दशरथ के पास सूर्यवंशी एक रज़ाई थी जो आने वाले राजाओं को सौंपी जाती थी
विद्वान वक्ता श्री रामकिंकर त्रिपाठी ने रामचरितमानस से उस रज़ाई को यथासम्भव पाठकों के लिए वर्णित किया है ।।
अब अभिलासु एक मन मोरे
पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरे ।
मुनि प्रशन्न लखि सहज सनेहू
कहेहु नरेशु रजायसु देहू ।।
वशिष्ठ मुनि ने कहा , हे राजन आप जिसे राजा चाहते हैं उसको रजाई दे दीजिए ।।
इस बीच मंथरा ने लंगड़ी लगाई और केकई से बोली
जो असत्य कछु कहब बनाई
तो बिधि देहइ हमहि रजाई ।।
बिना कुछ असत्य के रजाई हमको मिलने से तो रही ।।
सुबह हो गई लेकिन दशरथ जगे नहीं
लोगों ने कहा सुमंत्र से
जाहु सुमंत्र जगावहु जाई
कीजिहु काज रजायसु पाई ।।
इस प्रकार सुमंत्र ने रजाई दशरथ से लेकर राम के पास प्रस्थान किया
निरखु बदन कह भूप रजाई
रघुकुलदीपहु चले लवाई ।।
अब रजाई राम के पास आ गई
राम ने पिता से आग्रह किया कि बनवास के बाद मैं रजाई लेकर शीघ्र ही वापस आ जाऊंगा
आयसु पाय जनमु फल पाई
ऐयहुं वेगिहि होहु रजाई ।।
राम के साथ रजाई सुमन्त्र रथ मे लेकर अयोध्या से निकल चले
पाइ रजायसु नाय सिर रथ अति वेग बनाय
गयउ जहां बाहेर नगर सीय सहित द्वौ भाय ।।
सुमंत्र ने कोशिश की लेकिन
मेटि जाय नहि राम रजाई
कठिन करम गति कछु न बसाई ।।
राम ने ईश्वर की गति को अकाट्य बताया
उधर भरत को दुखी देख वशिष्ठ ने कहा कि पिता की आज्ञानुसार भरत तुम रजाई लेकर राज करो
यह सुन समुझ सोच परिहरहू
सिर धर राज रजायसु करहू ।।
करहु सीस धरि भूप रजाई
है तुम का सब भांति भलाई ।।
लक्ष्मन तो पहले से ही रजाई की रखवाली कर रहे थे
उठ करजोरि रजायसु मांगा
मनहु बीररस सोवत जागा ।।
भरत ने सबकी तरफ़ से राम से प्रार्थना की
कर विचार जिय देखहु नीके
राम रजाइ सीस सबही के ।।
राखे राम रजाइ रुख हम सब कर हित होय ।।
कर विचार मन दीन्ही ठीका
राम रजायस आपन नीका ।।
स्वारथ नाथ फिरे सबहीका
किए रजाइ कोटि विधि नीका ।।
जनक ने कहा, भरत सुबह रजाई की याचना करेंगे
भोरिहिं भरत पाइहहिं मनसहि राम रजाइ ।।
आखिरकार भरत ने रजाई के बारे मे राम को याद दिलाया
आनेहु सब तीरथ सलिल तेहि कह काह रजाय ।।
अब गोसांइ मोहि देहु रजाई
सेवहुं अवध अवधि भर जाई ।।
राम ने रजाई भरत को सौंप दी और
प्रभु पद पदम वंदि द्वो भाई
चले सीस धरि राम रजाई ।।
जैश्रीराम
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